रविवार, 6 जून 2010

मौसम बदला-बदला लगता है

लम्हा लम्हा चिड़चिड़ा लगता है

जिसे भी देखिए खाने को दौड़ता है
आदमी कुछ ज्यादा ही भूखा लगता है

देश के बुजुर्गों की हालत देखकर
सच में दिल को बड़ा धक्का लगता है

बेटी चाहे चांद-तारे तोड़ लाए फिर भी
क्यूं हमें निकम्मा बेटा ही अच्छा लगता है

जिस घर में बेटी है न शजर है कोई
उस घर का आंगन सदा सूना लगता है

शहरवालों से लाख अच्छे हैं वो आज भी
जहां कलम-दवात, तख्ती, बस्ता लगता है