शनिवार, 24 जुलाई 2010

पंचायतों को समर्पित गीत : ये इश्‍क आजाद है

गीता, कुरान, हर मजहब का ज्ञान पहले पढ़ ले ये सारा जहान
फिर बताए कहा लिखा है
इश्‍क पर किसी गांव,गोत्र की पाबंदी है
ये इश्‍क तो दो दिलों की रजाबंदी है
तुम समझो बात मेरी, तुम मानो बात मेरी
ये इश्‍क आजाद है,ये इश्‍क आजाद है


बचपन में तुमने ही सिखाया है
सब अपने हैं यहां न कोई पराया है
जब उमर हुई इश्‍क करने की
क्‍यूं फिर हम पे पहरा लगाया है
प्‍यार भी तो तुमने ही सिखाया है
अ इश्‍क से नफरत करने वालों
नफरत से किसका घर हुआ आबाद है
ये इश्‍क.........आजाद है


मारना छोड़ दो मुहब्‍बत वालों को
मारना है तो मारो नफरत वालों को
मारो दहेज लेने वालों को
इन रिश्‍वत खाने वालों को
इन चोर, गुंडे, दलालों को
मारो गर्भ में बेटी मारने वालों को
मारो गर्भ में बेटी.............................
पंचायत ये काम भी कर सकती हैं
और अपना नाम भी कर सकती हैं
मैं नहीं कहता हूं ये तो
हर नौजवां की आवाज है
ये इश्‍क .............आजाद है

गांव की गांव में शादी क्‍यूं नहीं हो सकती
एक ही गोत्र में शादी क्‍यूं नहीं हो सकती
हमको आप ही समझाइए
हमको बताइए बताइए
पर्दे के पीछे क्‍या-क्‍या होता है
आप सब समझते हैं
गांव की गांव में क्‍या क्‍या होता है
हमने तो यहां तक देखा है
देख कर दुख बहुत होता है
बाप-बेटी का बलात्‌कार कर देता है
ससुर, बहु की आबरू तार-तार कर देता है
आदमी इंसानियत को शर्मसार कर देता है
पंचायत मेरे सवाल का जवाब दे
मैं गलत हूं तो मुझे समाज निकाल दे
ऐसे कितनों को मारा गया है
ऐसे कितनों को उखाड़ा गया है
तुम्‍हारी खामोशी तुम्‍हारा जवाब है
ये इश्‍क ..............आजाद है


इनसे से तो लाख अच्‍छे हैं
आपके ये जो बच्‍चे हैं
मुहब्‍बत करके शादी करते हैं
आपकी टेंशन आधी करते हैं
इश्‍क वालों से ही जहां आबाद है
ये इश्‍क............ आजाद है

रविवार, 6 जून 2010

मौसम बदला-बदला लगता है

लम्हा लम्हा चिड़चिड़ा लगता है

जिसे भी देखिए खाने को दौड़ता है
आदमी कुछ ज्यादा ही भूखा लगता है

देश के बुजुर्गों की हालत देखकर
सच में दिल को बड़ा धक्का लगता है

बेटी चाहे चांद-तारे तोड़ लाए फिर भी
क्यूं हमें निकम्मा बेटा ही अच्छा लगता है

जिस घर में बेटी है न शजर है कोई
उस घर का आंगन सदा सूना लगता है

शहरवालों से लाख अच्छे हैं वो आज भी
जहां कलम-दवात, तख्ती, बस्ता लगता है